योग: कर्मसु कौशलं

 योग जीवन जीने की कला

*सुलभा देशपांडे***

      योगेश्‍वर श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए          कहा है ‘‘योग: कर्मसु कौशलं|‘‘ अर्थात योग जीवन जीने की कला है| योग कार्य करने का कौशल सिखाती है| योग सत्य को जीवन में उतारने का माध्यम है|

 उपरोक्त दृष्टि से विचार करें तो समझ में आता है कि आज हम सोचते हैं कि आसन एवं प्राणयाम ही योग है| परन्तु योग केवल आसन नहीं, केवल प्राणायम और ध्यान ( जिसे हम मेडिटेशन नाम से अधिक जानने लगे हैं) भी नहीं; बल्कि योग संपूर्ण जीवन दृष्टि है| योग भारत के ॠषि मुनियों द्वारा आत्मसात की गई जीवन जीने की कला है| योग ॠषि मुनियों द्वारा हमें सौंपी गई अमूल्य धरोहर है| जिसमें ॠषि पंतजलि की महत्वपूर्ण भूमिका है| अत: योगसन करने के पूर्व हम उन्हें नमन करते हुए, उनका स्मरण करते हुए ही योगासन का प्रारंभ करते हैं-

 ‘‘योगेन चित्तस्य पदेन वाचा,मलम् शरीरस्य च वैद्यकेन |

  मोेपाकरोत: प्रवरम्मुनिनां,पतंजलि प्रांजलीरानतोस्मिन्|‘‘

 यह जीवन जीने की कला त्रेतायुग में श्री राम को ॠषि वशिष्ठ ने दी थी| जब वे आश्रम से योगी जीवन की शिक्षा ग्रहण कर राजमहल में वापस आए तो उनके मन में संभ्रम हुआ कि वास्तविक जीवन कौन सा है; राजमहल का भौतिक सुख सुविधाओं से युक्त जीवन या आश्रम में बिताया योगी जीवन| इसी अवसर पर जीवन जीने की कला ॠषि वशिष्ठ ने राम को सिखायी| वह योगवसिष्ट ग्रंथ के रूप में हमारे सामने है| सार यही कि सारी भौतिक सुख सुविधाओं के बीच रह कर भी जो मन, शरीर, आत्मा से निस्पृह:, निर्लिप्त और स्थितप्रज्ञ रह सकता है, वही सच्चा योगी है| राजा जनक इसके जीते जागते उदाहरण थे| अत: उन्हें विदेहराज जनक कहा जाता था| श्रीराम ने यही योग साध्य किया अत: वे विपरीत परिस्थितियों में भी विचलित नहीं हुए| चाहे वह मखरक्षण का प्रसंग हो , चाहे १४ वर्षों के वनवास का, चाहे सीता वियोग का, वे कभी विचलित अथवा भयभीत नहीं हुए| वैसे ही द्वापर युग में योगेश्‍वर कृष्ण ने अर्जुन को गीता के माध्यम से यह योग सिखाया था| ‘‘ममर्पित मनोबुद्धिर्मोमद्भक्ता: समें प्रिया:‘‘ योग अर्थात जोड़ना शरीर को मन से, मन को बुद्धि से, बुद्धि को आत्मा से और आत्मा को परमात्मा से| कहने को बड़ी सरल बात है, पर मन को शरीर से एकरूप करना भी कठिन है| मन अत्यंत चंचल अस्थिर एवं गतिमान है| शरीर को स्थिर रखते हुए भी मन कोसों दूर भटकते रहता है| उसे शरीर की स्थिरता से स्थिर रखने के लिए की जाने वाली प्राथमिक क्रियाएं ही योग का प्राथमिक सोपान है| वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सामान्य व्यक्ति के लिए योग केवल आसन एवं प्राणायाम और ध्यान के रूप में ही रह गया है| परन्तु हमें जानना चाहिए कि वह संपूर्ण योग नहीं है, बल्कि योग के प्रति हमारा आधा अधूरा ज्ञान है|

  संपूर्ण योग प्रकिया को महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंगों में विभाजित किया है| जिसे अष्टांगयोग के नाम से जाना जाता है| इस अष्टांगयोग के आठ अंग निम्नानुसार है-

 १. यम,  २. नियम, ३. आसन, ४. प्राणायाम, ५. प्रत्याहार,  ६. ध्यान, ७. धारणा एवं ८. समाधि|  अर्थात आसन एवं प्राणायाम योग का तीसरा एवं चौथा सोपान है| इसके पूर्व यम और नियम दो महत्वपूर्ण अंग हैं| इस तीसरे अंग तक पहुंचने के लिए मनोभूमि तैयार करना योग की आवश्यक प्रक्रिया है| जिस प्रकार जमीन में बीज बोने के पूर्व उसे जोता जाता है, खरपतवार निकाल कर फेंके जाते हैं, भूमि में उपजाऊ खाद पानी डाल कर उसे बीज बोने योग्य बनाया जाता है| ठीक उसी प्रकार योग में भी आसन के पूर्व मन और शरीर को एकरूप करने के लिए प्रथम दो सोपानों द्वारा तैयार किया जाता है| वे हैं - यम और नियम|

 यम में निम्न पांच अंग आते हैं-१. सत्य, २. अहिंसा, ३. अस्तेय, ४. अपरिग्रह, व ५. ब्रह्मचर्य अर्थात कुछ प्रतिज्ञाएं जिसका कठोरता से पालन करना होता है| मैं सदैव सत्य और सत्य ही बोलूंगा| अंहिसा व्रत का पालन करूंगा| अर्थात मेरी वृत्ति को हिंसक नहीं बनने दूंगा| अस्तेय अर्थात चोरी करना अर्थात किसी के हिस्से का अन्न, जल, वस्त्र, धन जोरजबरदस्ती से अपने पास छीन कर उसका उपभोग नहीं करूंगा| और, उपनिषद में बताए अनुसार-

 ‘‘ईशावास्यम जगत् सर्वम् यत् किंचत् जगतत्याम्जगत

 तेन त्यक्तेन भुजिथा : मा गृध कस्म स्विधनम्‘‘

 यह ईश्‍वर रचित जगत है| अत: मेरा कोई अधिकार नहीं| आपस में बांट कर ही मैं इसका उपभोग करूंगा| त्याग पर आधारित जीवन जीऊंगा| अनावश्यक संग्रह (अपरिग्रह) अपने जीवन में नहीं करूंगा| जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगा इन पंाच प्रतिज्ञाओं का पालन करना सरल नहीं है, अत: मन और शरीर को कुछ नियमों में बांधना होगा वे नियम हैं|

 १. शुचिता, २. तप, ३. संतोष, ४. स्वाध्याय, ५. ईश्‍वर प्रविधान अर्थात मन और शरीर की शुद्धता एवं पवित्रता, जिसे तपस्या के द्वारा साध्य किया जाता है, जैसे सोने को तपाकर शु़द्ध किया जाता है| तपस्या शुचिता से शरीर और मन को ओज और शक्ति मिलती है| स्थिरता आती है| उसी प्रकार संतोष एवं स्वाध्याय मन को परिष्कृत करते हैं| स्वाध्याय अर्थात अपने आपको पढ़ना, अपने स्वयं का आकलन करना, अध्ययन करना| ईश्‍वर प्रविधान से तात्पर्य है अपनी समस्त क्रियाओं के फलों को ईश्‍वरापर्ण करने की आदत डालना अर्थात अपने कार्य का श्रेय दूसरों को देते जाना, जिससे अहंकार न पनपे|

 अहंकार पतन की प्रथम सीढ़ी है| इस प्रकार मन शरीर एवं बुद्धि को परिष्कृत करने के बाद आहार विहार एवं व्यवहार में संतुलन स्थापित होता है| और योगासन की पूर्व पिठिका तैयार होती है| आसन यह तीसरा सोपान है| जिसमें शरीर के हर कोण में प्राणवायु भरकर दबाव डाला जाता है एवं हमारी अंतरस्रावी ग्रंथियों को जो मूल रूप से समस्त क्रियाओं के लिए उत्तरदायी है, सक्रिय करता है| योग में इन अंतस्रावी ग्रिंथयो को चक्र कहा गया है| आसन एवं प्राणायाम से चक्र सक्रिय होते हैं| उनके नाम है- १. मूलाधार, २.स्वाधिष्ठान, ३. मणिपुर, ४. अनहत, ५. विशिष्ठ, ६. आज्ञाचक्र, ७. सहस्त्राक|  मूलाधार से सहस्त्राक चक्र तक पहुंचने की सपूर्ण प्रकिया उर्ध्वगामी है| आसन एवं प्राणयाम का योग अर्थात स्थिरता प्रत्याहार कहलाती है, जो पांचवां सोपन है| ध्यान धारणा एवं समाधि का आधार प्रत्याहार है| इस अष्टंाग योग में समाधि अंतिम सोपान है, जो व्यष्ठि की परमेष्ठि से एकरूपता का द्योतक है| और यही जीवन की पूर्णता है| 

 इस अष्टांगयोग का पूरे व्यक्तित्व पर पड़ने वाला प्रभाव मनुज को योगी बना देता है| इन योगियों की अबाधित परंपरा के कारण ही भारत विश्‍व में विश्‍वगुरू के रूप में पहचाना जाता था| योगेश्‍वर कृष्ण से योगी अरविंद तक भी यह परंपरा योग के माध्यम से सदैव जागृत रही| यही शुभ संकल्प हम २१ जून को विश्‍व योग दिवस के रूप में लें एवं भारत को पुन: उसी गुरूपद पर स्थापित करें, यही हम सबकी शुभकामना हो| हर्ष का विषय है कि हमारे प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी भी योग के प्रति आस्थावान हैं|